कामॅनवेल्थ गेम्स के लिये तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। बहुत सारी प्लानिंग्स और दिल्ली के सौंदर्यकरण के लिये कुछ महत्वपूर्ण कदम भी उठाये जा रहें हैं। आज की टापॅटेन खबरों में था -कि दिल्ली की झुग्गी -झोपडियों को पर्दानशीं करने की योजना। कामॅनवेल्थ गेम्स के दौरान बाहर से आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को उनके दीदार न हो इसके लिये झुग्गी -झोपडियों को बांस की खप्पचियों की चार-दीवारी से ढक दिया जायेगा ताकि उनके अस्तित्व को लेकर ,उनके जीवन-स्तर को लेकर अनावश्यक शर्मिन्दगी से बचा जा सके।
क्या इस कदम का कोई औचित्य है? झुग्गी वासियों के लिये कुछ नहीं किया गया ।झुग्गी -झोपडियों के उन्मूलन के लिये कोई कदम नहीं उठाया गया बल्कि बांस की चारदीवारी से उन्हें छुपाने का अनथक प्रयास जरूर शुरू होने वाला है। इनके अस्तित्व को लेकर यदि इतनी ही परेशानी है तो झुग्गी -झोपडियों के अस्तित्व को मिटाने के लिये ,उनके उन्मूलन के लिये कोई मुहिम शुरू क्यों नहीं करी जाती ।कोई ठोस योजना को क्रियान्वित क्यों नहीं किया जाता। जब भी कोई झुग्गी कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगती है तो उसी समय उनके रहवासियों के रहने की व्यवस्था व उनकी समस्याओं का निराकरण क्यो नहीं किया जाता।सरकार क्यों निर्धारित किराये पर इन्हें बहुमंजिला आवास उपलब्ध नहीं करा सकती?
झुग्गी-झोपडियों में रहने वालों की अहमियत को दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि आम लोगों की रोज-मर्रा की जिन्दगी को सुचारू रूप से चलाने में इनका बहुत बडा योगदान है। कामवाली बाई,मजदूर,कारीगर भंगार वाले और भी बहुत से लोग वहीं से हैं । हम हर समस्या का निराकरण करने में सक्षम हैं पर समस्या व समाधान का राजनीतिकरण, अफसरशाही,बाबूशाही व भ्रष्टाचार किसी भी योजना को पनपने ,साकार होने व सफल होने से पहले ही दम तोडने को मजबूर कर देती है।इच्छा शक्ति की अल्पता व सहयोग की कमी भी योजना को मूर्तरूप नहीं लेने देती। इंडोनेशिया से हमें सबक लेना चाहिये-जहां झुग्गी-झोपडियों के उन्मूलन के लिये एक व्यक्ति के द्वारा शुरू किया गया प्रयास एक अभियान बन चुका है। एंडी सिसवांतों के अनथक प्रयत्न व प्रयासों को चौतरफा सहयोग मिला तो झुग्गीवासी विस्थापित होने की बजाय अपनी जमीन के मालिक बनें व उनके जीवन-स्तर में व्यापक बदलाव आया। आज इंडोनेशिया के कई शहरों में ये प्रोजेक्ट जोर-शोर से चल रहें हैं तथा सफलता प्राप्त कर रहें हैं।आज हमें भी कुछ ऐसे ही एंडीसिसवांतों की जरूरत है जो हमारे अपने लोगों के जीवन-स्तर व जीवन-यापन के तौर-तरीकों में अहम बदलाव ला सके । जरूरत है कि इन्हें मुख्यधारा में होने का अहसास कराया जा सके । भविष्य मैं हमें इन्हें छुपाने या इनको लेकर हीन -भावना से ग्रस्त होने की बजाय हमें इनके विकास के लिये ठोस कदम उठाना ही होगा।
Monday, August 17, 2009
Monday, March 2, 2009
देह से इतर मन-प्राण और भी है............
नारी शोषण की बात कोई नयी तो नहीं है फिर भी हर बार ये कचोटती है विचलित करती है। आदिमकाल से चली आ रही शोषण की व्यथा व कथा आज भी कायम है। कभी प्रतिशोध के तहत उसे रौंदा गया तो कभी जश्न कै बतौर भोगा गया। लेकिन शोषित तो एक वर्ग ही रहा ना। अफसोस तब और अधिक होता है जब बदलते परिवेश व अधिकार की दुहाई दी जाती है। लेकिन उस सबके बावज़ूद आज भी आदिम परम्परा के रुप में नारी को ही शोषण का केन्द्रबिन्दु बना दिया जाता है। आदिवासी कबिलों की बात तो दीगर ये सब मुख्यधारा में रहने वाली नारी के साथ हो रहा है। कार्यक्षेत्र हो या स्कूल या कालेज हर बार दोषी भी वही करार दी जाती है।
कुछ दिन पहले महिला नक्सलवादी की एक टिप्पणी ने स्तब्ध कर दिया जिसमें उसने कहा था कि जंगल में रात के अंधेरे में उसके साथ शरीरिक सम्बन्ध बनाने वाला कौन है वो खुद भी नहीं जानती थी। समूह का कोई भी पुरूष सदस्य उनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता था और वो प्रतिवाद भी नहीं कर सकती थी। अपनी विवशता और नक्सलवाद से मोहभंग ने ही उन्हें फिर से मुख्यधारा में आने के लिये प्रेरित किया और वो आत्मसमर्पण के लिये तैयार हुईं। कुछ महिला नक्सलियों का एडस से ग्रसित होना इसका प्रमाण है।
धौलपुर के ईनामी डकैत जगन गर्जर पर भी उसके दल की महिला सदस्यों ने भी कुछ इस तरह के आरोप लगाये हैं।
दल में महिलाऒं के शामिल होने की भी अपनी वजह है। अपह्रत महिला शारीरिक शोषण का शिकार बनायी जाती थी।किसी तरह वो उनके चंगुल से बच निकलती तो परिवार व समाज से बहिष्कृत कर दी जातीं।उसके बाद इन महिलाऒं के पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता और वो उस दल की सदस्या बना ली जाती। डकैतों को पनाह देने वालों को बतौर उपहार उस रात महिला सदस्य को उसके सुपुर्द कर दिया जाता है। यही नहीं दल के अन्य पुरूष सदस्यों का भी उन पर अधिकार होता है और वो किसी भी तरह की मनमानी के लिये स्वतन्त्र है।
इन सब घटनाऒं को देखते -सुनते हुए मन आहत है। बार-बार यही लगता है देह से इतर मन-प्राण और भी है।
कुछ दिन पहले महिला नक्सलवादी की एक टिप्पणी ने स्तब्ध कर दिया जिसमें उसने कहा था कि जंगल में रात के अंधेरे में उसके साथ शरीरिक सम्बन्ध बनाने वाला कौन है वो खुद भी नहीं जानती थी। समूह का कोई भी पुरूष सदस्य उनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर सकता था और वो प्रतिवाद भी नहीं कर सकती थी। अपनी विवशता और नक्सलवाद से मोहभंग ने ही उन्हें फिर से मुख्यधारा में आने के लिये प्रेरित किया और वो आत्मसमर्पण के लिये तैयार हुईं। कुछ महिला नक्सलियों का एडस से ग्रसित होना इसका प्रमाण है।
धौलपुर के ईनामी डकैत जगन गर्जर पर भी उसके दल की महिला सदस्यों ने भी कुछ इस तरह के आरोप लगाये हैं।
दल में महिलाऒं के शामिल होने की भी अपनी वजह है। अपह्रत महिला शारीरिक शोषण का शिकार बनायी जाती थी।किसी तरह वो उनके चंगुल से बच निकलती तो परिवार व समाज से बहिष्कृत कर दी जातीं।उसके बाद इन महिलाऒं के पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता और वो उस दल की सदस्या बना ली जाती। डकैतों को पनाह देने वालों को बतौर उपहार उस रात महिला सदस्य को उसके सुपुर्द कर दिया जाता है। यही नहीं दल के अन्य पुरूष सदस्यों का भी उन पर अधिकार होता है और वो किसी भी तरह की मनमानी के लिये स्वतन्त्र है।
इन सब घटनाऒं को देखते -सुनते हुए मन आहत है। बार-बार यही लगता है देह से इतर मन-प्राण और भी है।
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