Thursday, February 14, 2008

जिभिया चटापट होइबे , हम खइबे जलेबिया

आज सुबह से ही फोन पर फोन आ रहे थे। बधाई देने के लिये। अरे-अरे हंसिये मत इसका वेलेंन्टाइन डे से कुछ लेना-देना नहीं। आज दिन है हमारी शादी की २३वीं सालगिरह का । शादी की याद आते ही उससे जुडी तमाम यादें,बातें ज़ेहन में घूम जाती है। कुछ खट्टी कुछ मीठी।

शादी के कुछ महीने पहले मम्मी यानि (सास)का पत्र आया।मजमून कुछ इस तरह था-अनु रानी हमारे यहां नई दुल्हन से गाना गवाया जाता है। ये एक रस्म है इसलिये गाना अभी से सीख लेना। पत्र पढते ही दिमाग भन्ना गया। हम तो गलती से घरवालों की उपस्थिति में बाथरुम में भी नहीं गुनगुनाते फिर यहां तो सबके सामने गाने की बात है। मम्मी समझा-समझा कर परेशान कि संगीत स्कूल चली जाऒ। जब भी मम्मी समझाने की कोशिश करती मैं कूद कर इस बात पर आ जाती कि -" लडकी हूं ना इसलिये ये सब दादागिरी। मैं जैसी हूं उसमें क्या? आप मनीष को क्यों नहीं कहती कि हमारे यहां भी रस्में होती हैं और उसे भी करनी पडेगी। वो मानेगा क्या?" ऒर भी ढेर सारे ऊल-जलूल तर्क-कुतर्क करती।

ये सिलसिला और लडाई कई दिनों चली। मेरी खास सहेली साधना इन सब बातों की चश्मदीद थी। उस दिन वो बिना बोले साइकिल लेकर चल दी। थोडी देर बाद एक मध्यवय के सज्जन के साथ हारमोनियम लिये हाजिर। ये है ,इसे सीखाना है। मैं इस अप्रत्याशित हरकत के लिये तैयार नहीं थी। खैर इधर-उधर की बातों के बाद उन्होनें गाने को कहा-ज़िद या संकोच कि गले से आवाज़ निकलने को तैयार नहीं। तीन-चार दिन की समझाइश के बाद एक फिल्मी गाना गुनगुनाया । लय-ताल , सुर सब बेताल ये दीगर बात की अभी तक उनसे दोस्ती नहीं हो पाई।

रहीम सर हमारी आवाज़ से खासे प्रभावित गिरते -पडते बस एक गाना वो सिखा पाये"आज खेलो श्याम संग होरी पिचकारी रंग भरी केसर की"इस गाने में गले को अच्छी खासी मशक्कत करानी पडती थी। भैया की शादी हमसे तीन-चार दिन पहले हुई थी। भाभी से जब गाने को कहा गया तो बिना एक सैंकंड गवाये दनादन ढोलक को थाप दे दे गाना सुनाया "मेरी नई -नई सासों के नखरे नये,बागों में जाये तो माली मटके" जब डांस की फरमाइश हुई तो एक की जगह तीन-चार गानों पर नाच कर दिखा दिया। नेग चार हुये ,सारे रिश्तेदार खुश सुघड बहू आई है।

अब मम्मी की वक्र दृष्टि हम पर थी। कि हम ना जाने क्या गुल खिलायेंगें अपनी ससुराल में।आखिरी पांच दिन में अब नये सिरे से गाना चुना गया-"जिभिया चटापट हुइबे ऒ हम खइबे जलेबिया ,सासु को दइबे बियाज में हम खइबे जलेबिया। ऐसे एक-एक करके सारे रिशतेदारों को ब्याज में दे देना था। जब भी गाने की कोशिश करते बराबर के भाई-बहिन टांग खिंचाई शुरु कर देते। देखो कितनी चटोरी है। दूसरा बोलता अरे किसी को मत छोडना उठा-उठा कर ब्याज में देते रहना एक-एक को। हम शादी को इन्जाय करने की बजाय पूरे समय आशंकित थे कि तब क्या होगा।

शादी के बाद की वो घडी भी आ गई -गोल घेरा बना कर सारे रिश्तेदार इर्द-गिर्द उत्सुकता के साथ कुछ अच्छा सा सुनने की उम्मीद लगाये एक-टक देख रहे थे। ऐन मौके पर हिम्मत जवाब दे गई। आवाज़ साथ देने को तैयार नहीं। हमारे मौन को मम्मी अपनी अवमानना मान कर नाराज़ सी लग रही थी। मनीष शुरु में मज़ा ले रहे थे,पर बाद में उनकी आंखों में हमारे लिये दया स्पष्ट दिख रही थी। पापा ने बात सम्भाली चलो छोडो अब तो ये यहीं है फिर कभी सुन लेना। लेकिन बुआ जी वगैरह छोडने के मूड में कतई नहीं थी। इस ना-नुकर के बीच कई धैर्यहीन श्रोतागण खिसक लिये। ये देख हमने राहत की सांस ली कि चलो कम लोगो के सामने मखौल उडेगा और फिर गाना सुना ही दिया। सब बडे खुश थे कि शगुन पूरा हुआ। मम्मी भी अब प्रसन्न थी बाद में बोली "तुम बेकार डर रही थी"।अब लगता है कि ये रस्में बडे सोच-समझ कर बनायीं गईं हैं कि नई दुल्हन नये परिवेश में सबसे घुल-मिल जाये और उसकी झिझक भी कम हो जाये

Wednesday, February 13, 2008

नन्हीं बडी हो गयी

कृति का फोन था खुशी से लरजती आवाज़ "मां इन्फोसिस में मेरा सलेक्शन हो गया"सुन कर राहत की सांस ली। भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसका आत्मविश्वास डिगा नहीं। पहली बार में असफलता हाथ आने पर निराशा की भावना बलवती हो जाती। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।


पिछले दो दिनों से उसे लेकर बेहद परेशान थी। परीक्षा के तीन दिन बाद ही कैम्पस सलेक्शन के लिये इन्फोसिस आ रही है। मानसिक रुप से कोई भी इतनी जल्दी इन्फोसिस के लिये तैयार नहीं था। पर उसके लिये कुछ नहीं किया जा सकता था। कृति बी टेक थर्ड इयर की छात्रा है। उसका 11 को एप्टीट्यूड का टेस्ट हुआ। शाम तक रिजल्ट आना था। फिर कटलिस्ट बन कर इन्टरव्यू होना था। एप्टीट्यूड टेस्ट देते ही फोन आया। मां पेपर अच्छा नहीं हुआ । मेरा क्या होगा? मैंने उतने ही शान्त स्वर में कहा कोई बात नहीं दूसरी कम्पनी भी तो आयेंगी उसमें ज्यादा मेहनत करके देना। बस सुनते ही बिफर गयी "जानती हो ,ऐसे मौके मुशकिल से मिलते हैं"। जितना गुबार ,दुख,आक्रोश वो निकाल सकती थी वो निकाला हमेशा की तरह मां थी ना सुनने के लिये। उसकी पुरानी आदत है-परेशान होगी तो तुरन्त फोन करके बतायेगी। समझाऔ तो लडेगी पर फिर थोडी देर में फोन करके सॉरी बोलेगी तरह -तरह से मनायेगी कि आपको नहीं कहूंगी या आपसे नहीं लडूंगी तो किसको कहूंगी बोलो मां। मैं इन्तज़ार करती रही पर फोन नहीं आया। शाम को फोन आया सॉरी मां परेशान थी टेस्ट क्लियर हो गया मां अब थोडी देर बाद इन्टरव्यू है । हो तो जायेगा ना मां। हां बोलो मां। "हां हो जायेगा - पर तुम अनावश्यक दिमाग पर बोझ मत लो अपनी तरफ से पूरा प्रयास करो। क्या होगा वो मत सोचो अभी। ऐसा कहीं होता है क्या मां? अच्छा पहले फ्री हो जाऒ फिर बात करते हैं। रात नौ बजे उसने बताया कि इन्टरव्यू हो गया पर कुछ कहा नहीं जा सकता। उसकी आवाज़ साफ बता रही थी कि वो बेहद परेशान है। अब मेरी बारी थी समझाने की। "देखो जो होगा अच्छे के लिये होगा चिन्ता मत करो। नहीं होगा तो सोचो कोई ज्यादा अच्छा मौका मिलने वाला है"। जाऒ घर जाकर अब रेस्ट करो पूरा दिन हो गया। ठीक है और बात खत्म । सुबह में पूरी तरह से जागी भी नहीं थी की कृति का फोन- मां हो जायेगा ना? हां बोलो मां। मैं उसकी आवाज़ की व्याकुलता से भीग सी गई- हां हो जायेगा बेटू टेन्शन क्यों करती हो। अच्छा, आज इतनी सुबह कैसे जागी? नींद नहीं आयी मां। कालेज भी जाना है आज दूसरे कालेज भी जाना है वहां भी कम्पनी आयी है। जाऊं या नहीं? ये तो तुम्हें सोचना है। ठीक है मां। दिन भर थोडी-थोडी देर बाद फोन आते रहे। "हां बोलो मां' बस एक ये ही बात।


कृति शुरु से ऐसी ही है। छोटी थी तो चिपकु बच्चा थी। सामने दिखती रहती तो खेलती ना पा कर पूरा घर सिर पर उठा लेती। कभी-कभी शाम को गोदी में बैठ कर मेरे दोनों हाथ पकड कर बैठ जाती आज मेरी मम्मी काम नहीं करेगी। मैं शर्म से पानी-पानी कि घर वाले क्या सोचेंगें। अम्मा से फर्माइश होती- हलवा बनाऔ, फिर पूरी कढाई पर कब्जा जमा कर बैठ जाती कि बस मैं और मम्मी खायेंगें। नहाने जाती तो बाथरुम के बाहर डेरा डाल कर बैठ जाती। हां इति के होने के बाद थोडा परिवर्तन जरुर आया। धीरे-धीरे जिम्मेदारी का भाव भी आता गया घर से बाहर निकलने पर आत्मविश्वास भी बडा।


दिल के गवाक्ष खुले हैं और यादों की मंजूषा भी। फिर से फोन की घंटी बज रही है। अब तफ्सील से हर बात बतायी जायेगी । आज अहसास हुआ कि बच्चे बडे हो गये हैं । वक्त ना जाने कैसे इतनी तेजी से गुजर गया पता ही नहीं चला।