Monday, January 28, 2008

उड़ता मखौल और चूं न करते लोग

कल कहीं टी वी पर हिन्दी का मखौल उडाया जा रहा था तो कहीं उसके साहित्य सृजन से जुडे लोगों का । कान ऐसे पकडिये या वैसे बात तो एक ही है ना। कब तक हिंदी के साथ अपनी ही धरती पर दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहेगा और कब तक इसे सहना होगा। मौका था "जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल" का। चर्चा थी "राजस्थानी लोक साहित्य" पर ।


कार्यक्रम अलग-अलग दौर ,विषय और समय सीमा में विभाजित था।राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा करने के लिये दो मशहूर राजस्थानी लेखक श्रीलाल मोहता और चंद्रप्रकाश जी देवल अपने निर्धारित समय पर उपस्थित थे। पर पहले से चल रही अंग्रेजी प्रकाशकों की वार्ता और चर्चा का दौर चल रहा था जिसके फलस्वरुप राजस्थानी लोक साहित्य पर चर्चा का दौर निर्धारित समय पर शुरु ना होकर कुछ विलम्ब से शुरु हुआ।

चर्चा परवान चढ़ रही थी कि तभी आयोजन से जुडी अंग्रेजी की चर्चित उपन्यासकार नमिता गोखले ने समय सीमा का हवाला दे कर दोनों को अपमानित किया और उन पर जमकर बरसीं ।साथ ही उन्हें बिना चर्चा को समाप्त किये मंच से उतर आने पर विवश किया। यदि वो समय की इतनी ही पाबन्द थी तो पूर्व में चल रही वार्ता में उन्होंने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया था। फिर उस पर नमिता के इस कथन ने किसी और को ना सही पर मुझे आहत किया कि "ये हिन्दी -राजस्थानी वाले तो माइक से चिपक जाते हैं। इन्हें चुप कराना बडा मुश्किल है। अंग्रेजी वाले इस मामले में आर्गेनाइज्ड रहते हैं। वे समय पर बात खत्म कर देते हैं।बीच में टोके जाने पर बुरा नहीं मानते"। उसके बाद का बडबोलापन यह,उन्होने दावा किया कि वो कई बार हिंदी लेखकों को स्टेज से उतार चुकीं हैं।

समाजसेवी स्वामी हग्निवेश और चित्रा मुदगल भी वहां उपस्थित थी, साथ ही इस बात पर चित्रा जी ने कहा भी" अंग्रेजी के लिये तो बडा सभागार रखा गया पर हिन्दी और राजस्थानी के लिये उपेक्षित सा ये कोना दिया गया"।

भाषा का और उससे जुडे लोगो का इससे ज्यादा क्या अपमान होगा? धिक्कार है उन पर जो ऐसे आयोजनों में मौजूद तो रहते हैं पर विरोध तक नही कर सकते। धिक्कार है हम पर भी जो मूक दर्शक बने सहते रहते हैं। जब तक ऐसे बर्तावों की खिलाफत नहीं की जायेगी तब तक बारम्बार इसी तरह होता रहेगा। अपने ही लोगों के हाथों अपनी अस्मिता पर आंच आते देखते रहेंगें और यूं ही मखौल उडवाते रहेंगें।


पूरी जानकारी के लिए दैनिक भास्कर की इस खबर को पढ़ा जा सकता है।

Saturday, January 26, 2008

गणतंत्र दिवस- दिल से या रस्म अदायगी.......

झंडारोहण के बाद कुछ देर पहले ही फैक्ट्री से लौटे हैं।दिल कुछ भारी सा है। आज गौर किया तो महसूस हुआ कि झंडारोहण के बाद राष्ट्रीयगान वाले सिर्फ कुछ ही लोग थे। मज़दूर महिलाऒं की बात छोड दी जाये क्योंकि अधिकांश अंगूठा छाप हैं। लेकिन बाकि लोगों की बात करें तो ? हम में से कितने है जो ऐसे समारोह में शिरकत करते हैं ।या साल में कितनी बार राष्ट्रगान गाते हैं। मैंने खुद याद करने की कोशिश करी तो याद आया पिछली बार पन्द्रह अगस्त को गाया था। गाया या बुदबुदाया ................ अगली बार शायद फिर स्वतंत्रता दिवस को ही गुनगुनाऊंगी।
उत्साह जैसे लाख चाह कर भी नहीं महसूस हो रहा है। वो रोमांच कहां गया जब बचपन में दस-पन्द्रह दिन पहले से गणतंत्र दिवस की बाट जोहते थे।अपने स्खूल में सिखाई गई ड्रिल को मोहल्ले को बच्चों को इक्ठ्ठा करके सिखाते थे।जब कोई नहीं मिलता तो दोनों भाई-बहिन एक-दूसरे की सशर्त ड्रिल देखते थे।परेडग्राउंड में पापा को यूनीफार्म में देख हम दोनों गर्व से इतराते थे। सहपाठियों की काना-फूसी और प्रश्न बार-बार आते-"तेरे पापा पुलिस में हैं क्या'?बाल सुलभ बुद्धि से तत्परता से जवाब देती -"नहीं, उससे भी बडे हैं। पता है- एन सी सी ऑफीसर हैं"।
वो भी याद है रिदम बिगडते ही लेझीम की हाथ पर चोट तडपा गई थी। पर सर ने कहा था- सबसे अच्छी ड्रिल हमारी होनी चाहिये ।इसलिये आंखों में आंसू भरकर भी बिना रुके करते गई थी।वो दिन भी याद है जब गणतंत्र दिवस को भय्या और मैं पिटे थे।साल में दो बार-पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को मम्मी स्कूल सफेद सिल्क की साडी जिसका एक अंगूल का लाल पाट था पहन कर जाती थी।उस दिन भी उन्होंने वो साडी निकाली पर बार्डर गायब। मां को समझ नहीं आ रहा था कि ये वो ही साडी है या कोई ऒर । अगर वही है तो बार्डर कहा गया? तभी भैया से चिढी हुई मैंने पोल खोल दी कि इसने लाल पाट को फाडकर पतंग की पूंछ बना ली थी। दूर से भैया चिल्लाया "झूठ्ठी तेरी पतंग की भी तूने पूंछ बनायी थी"। हां, पर फाडी तो तेने थी ना। इतरा तो तू रही थी देख कैसी-मेचिंग-मेचिंग पूंछ है। मां का गुस्सा सातवें आसमान पर था और अगले ही पल हमारे लाल-लाल गाल।
खैर गणतंत्र दिवस बीत रहा है।आज जो गाने सूने है अब अगली बार पन्द्रह अगस्त को सुनने को मिलेंगें। मैं अभी भी असमंजस से घिरी उस उत्साह और रोमांच की तलाश में हूं जो राष्ट्रीय पर्व को लेकर होना चाहिये।

Thursday, January 24, 2008

पालतु रखिये- तनाव मुक्त रहिये

पालतु रखिये- तनाव मुक्त रहिये

अवसाद मुक्त रहना हे तो कोई भी पशु पालिये। जी हाँ अचूक इलाज़ है अकेलेपन का भी और अवसाद का भी। मैंने अपने बचपन से इनका संग पाया है। बच्चों के हास्टल जाने के बाद तो इनका संग अपरिहार्य हो गया है। बडी बेटी जब आज से ४ साल पहले हास्टल गयी तो पास में इति थी छोटी बेटी। सूनापन मन के आंगन में पसरा पर उससे उबर गयी।

जब इति के हास्टल जाने की बारी आई तो अपने अकेलेपन के बारें में सोच-सोच कर कलेजा मुहं को आने लगता था। सबके सामने बहादुर बनी मैं अकेले में ना जाने कितनी बार अपने आंसू पौंछती थी। वो दिन भी आ गया जब खुद उसे छोडने गयी। चलते वक्त बरबस आंखें भर आयी। रास्ता पूरा मौन पर रोते हुये गुज़रा। मैं रो-धोकर जी हल्का कर लेती थी पर मनीष एक-चुप हज़ार चुप थे। घर जहां ५-६ लोग हमेशा होते थे अब हम दो। वाकई घर का सूनापन दिल के खालीपन को और बडा देता था।

मम्मी-पापा इति के जाने के पहले ही हैदराबाद जा चुके थे ।अपने छोटे बेटे के पास कुछ दिन रहने के लिये। मनीष हमेशा की तरह अपने काम पर जा चुके थे।मैं अकेली सुस्त बीमार सी चुपचाप पडी थी। सैमी( हमारी पालतु कुतिया) कई बार पास आकर उठाने की चेष्टा कर चुकी थी। तीन-चार दिन ऐसे ही निकले फिर सैमी ने खुब तंग करना शुरु किया। मेरे मुहं ढक कर लेटते ही कूं कूं करके रोना शुरु। मैं अपना दुख भूल कर जानने की कोशिश करती कि आखिर हुआ क्या है? थोडी-थोडी देर में ज़िद की बाहर घूमाने ले जाऔ। घूम कर आती तो एक-टक निहारती। जब मैं व्यस्त होती तो कोई बात नहीं ।पर खाली बैठते ही उसकी फर्माइश शुरु हो जाती।कुछ खाने को दो या खेलो। मनीष से वो थोडा डरती थी। पर इन तीन-चार दिनों में एक परिवर्तन मैंने महसूस किया । उनके आते ही दौड लगा कर जाती और पैरों में लौट लगाती । अपनी ऒर से उसका भरसक प्रयत्न होता की हम दोनों उससे खेलें या बातें करें। कुल मिला कर उसको हमारा चुपचाप उदास बैठना पसंद ना था।ये बात अब हम भी समझ रहे थे कि वो ये सब हमारे लिये कर रही है। पूरे समय हम दोनों की गतिविधियों पर नज़र रखती और ज़रा सा भी परेशान देखते ही गोदी में आ चढती। बातें वो सब समझती थी कोई गलती करती और शाम को मैं मनीष को बताती तो उसकी चापलूसी शुरू हो जाती कि मत बताऒ। संध्या को पूजा में दीपक जलाने जाती तो बीच पूजा में आकर गोदी में बैठना होता था। ये भी एक तरह की ज़िद थी। जब मम्मी घर में होती तो वो ना पूजा और ना रसोई में जाती थी। पर अब सिर चढे, चिपकू बच्चा बन कर मम्मी यानि मेरे पीछे घूमना होता था। पापा के साथ रात को खाना होता था चाहे मन ना हो रोटी निगलनी पड रही हो पर उसने अपना खाने का समय हमारे साथ का कर लिया था। शाम को मनीष कुछ हल्का-फुल्का खाते हैं। तो उस समय भी मनीष के हाथ से खाना है। कभी-कभी काजू खाने की फर्माइश होती थी। अब तो मनीष भी उसकी हर जरुरत ,पसन्द -नापसन्द को जान चुके हैं। सैमी को मनीष के साथ कार में घूमने जाना बहुत पसन्द था। खिडकी से मुंह निकाल कर ऐसे इतराती जैसे सबको बताना चाहती हो देखो ,मुझे देखो, अपने पापा के साथ घूमने आयी हूं। रेस्टोरेंट में आइसक्रीम खाना भी खूब पसन्द था। बडी तमीज़ से अलग कुर्सी पर बैठाया जाता । पेपर नेपकिन नीचे लगा कर चम्मच से आइसक्रीम खिलायी जाती । इतनी अदा से खाती की सब आस-पास वाले उसे निहारते और शायद ये बात वो जानती थी और उसे ऐसे मौकों पर मज़ा आता था। छोटे बच्चे उसे सख्त नापसन्द थे क्योंकि उनके आने से उसका गोदी में बैठ पाना मुमकिन नहीं होता था।बच्चे जब हास्टल से घर आते तो दो-चार दिन उसे अच्छा लगता ।फिर बच्चों से शुरु होती उसके अपने अधिकारों की लडाई। खासतौर पर मुझे लेकर । जब दोनों बेटियां गलबैंया डाल कर इधर-उधर लेटती तो वो बौखला जाती ।इति अक्सर उसको चिढाकर बोलती देख मेरी मम्मी और फिर दिखा-दिखाकर प्यार करती कुछ पल अपलक देखती और छलांग लगा कर मेरे ऊपर चढ बैठती फिर बडे गर्व से उन दोनों को देखती जैसे कह रही हो देख लो ये मेरी मम्मी हैं बस मेरी।


उसकी इन छोटी-छोटी हरकतों ने ,प्यार ने हमें अपने अकेलेपन और उदासी से निकलने में बडी मदद करी। सही मानिये इनका साथ आप में नई स्फूर्ति पैदा करगा। कई रिसर्च ने भी इस बात पर सहमती जताई है कि पालतु जानवर का साथ आपके तनाव को कम करता है और आत्मविश्वास को बढाता है। फिर देरी किस बात की आप भी आज़मा कर देखिये।

Monday, January 14, 2008

होना इन्सपायर्ड युवाओं का

नये साल पर सब लोग नये-नये रिज़ाल्यूशन्स लेते है। पर हमारे संजीत भाई ने शुभ दिन चुना अपने जन्मदिन का । हमने भी मुबारकबाद दी बातों-बातों में पुछा तो पता चला कि इस बार का उनका रिज़ाल्यूशन्स’ है कि अपनी "हाथ अगरबत्ती पैर मोमबत्ती "वाली छवि से मुक्ति पायी जाये।

हमने पूछा -भई सोचा तो ठीक ही है तो इरादा क्या है? । थोडी देर मौन रहने के बाद कुछ झिझकते हुये -भाईजान ने फरमाया कि सोचा है योगा शुरू किया जाये। गुड, आइडिया तो अच्छा है। ज़नाब हौले से मुस्कुराये। कहीं कोई कैम्प ज्वाइन करना है क्या ? हमने प्रश्न दागा । बोले नहीं एक दोस्त बाहर से आने वाला है उससे सीडी मंगवाई है।

योगा ...................... सीडी........... बाहर से ............... हमारे कान कुछ खडे हुये।बिना मौका दिये तत्काल पूछा वो शिल्पाशेट्टी वाली। अरे ,आपको कैसे पता? भैया उम्र का तकाज़ा है। इतना अनुभव तो हो चुका कि उडती चिडिया के पर गिन सके। हमने भी तीन दिन तक इंडिया टीवी पर दिखाई जाने वाली सुगठित देह-यष्टि ,सधी हुई मुद्रा ,श्वसन-प्रश्वसन ,प्राणायाम करती शिल्पाशेट्टी की योगा गुरु वाली सीडी की क्लीपिंग्स बिना पलक झपकाये बडे मंत्र-मुग्ध भाव से देखी थी। जब हमारा ये हाल था तो फिर संजीत का क्या हुआ होगा सहज अन्दाज़ा लगा सकते हैं। फिर संजीत ने जो रिज़ाल्यूशन्स लिया कोई ऐसे ही तो लिया नहीं होगा।

क्यों भई ,हम गलत थोडे ही कह रहें हैं। संजीत जैसे ना जाने कितने युवा इस सीडी से इन्सपायर्ड होंगें, आप अन्दाज़ा लगा ही सकते हैं।एक समय था जब बाबारामदेव योग क्रांति लाये थे । अब युवा दिल ,हर दिल अज़ीज़ शिल्पाशेट्टी नये रूप में हैं। साधुवाद , चलिये कोई तो कारण मिला हमारे युवा लोगों को इन्सपायर्ड होने का।

Tuesday, January 8, 2008

मिलेगा ऐसा कोई कभी?

डॉ गरिमा तिवारी जिनसे परिचय तो हुआ था हिन्दयुग्म की प्रतियोगिता जीतने के बाद मेडिटेशन सीखने के दौरान ।लेकिन कब धीरे-धीरे उसने अपने लिये दिल में जगह बना ली कि पता ही नहीं चला । वो "मै और कुछ नही…" और "जीवन ऊर्जा" नाम से ब्लॉग लिखती है। उसकी इच्छा थी कि यह पोस्ट हम अपने ब्लॉग पर दें तो उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए हम उसकी पोस्ट यहां डाल रहे हैं------



मिलेगा ऐसा कोई कभी?

कुछ दिनो पहले एक सहेली का रिश्ता आया था, उसे लोग देखने आये तो वो मुझे भी अपने साथ होने को बोली.... ऐसे माहौल पर मै हमेशा से जाने से कतराती हूँ, पर कोटा की एकमात्र हम उम्र महिला सहेली ने निवेदन किया तो टाला भी नही जा सकता था... उस दिन मै पुरे दिन उसके साथ रही... यहाँ तक की ब्युटीपार्लर तक जाना पड़ा साथ साथ (सबसे खतरनाक जगह), खैर मै उसका बनना सवरना देख रही थी, बीच बीच मे आँटी जी( उसकी मम्मी) नसीहते देना भी सुन रही थी, देख बेटी, सबके सामने आँखे झुका के बाते करना, जो कोई कुछ पुछे आराम से जवाब देना, तु कुछ मत पुछना.... वगैरह वगैरह... तभी अंकल जी ने कहा... और अपने लड़को जैसे दोस्तो को सामने मत लाना... और अपनी बहादूरी का बखान मत करना... सभ्य शालीन बनकर सामने आना... वगैरह वगैरह।

अब ये सारी बाते उबकाई लाने के लिये बहुत लग रही थी... मै वहाँ से खिसकने के बहाने बना रही थी... लेकिन सहेली जी हैं कि बस... अंत तक उसे मेरी हालत पर तरस आ गया और मुझे निकलने की इजाजत दे दी एक शर्त के साथ की मै उसके दुसरे सहेली को साथ लेकर दुबारा 4 बजे आऊँगी... मुझे क्या चाहिये था.. खिसकने का बहाना... लेकिन ये क्या दुबारा आना... खैर मैने हाँ बोला और साँस लेने निकल पड़ी।

मै सोच रही थी कि कोई बहाना कर लूँ, पर वक्त पर उसकी सहेली आ गयी, और मरती क्या ना करती कबुतरखाने मे मुझे जाना ही पड़ा... वहाँ पहूँचे तो सब तैयार था... मेरी सहेली ने देखती ही इशारा किया (लेट क्यूँ किया?) वैसे जवाब वो जानती थी, मुझे कुछ कहना नही पड़ा... वैसे भी शायद मै बोल नही पाती..उन लोगो की बाते हो रही थी... बाते क्या सिर्फ सवाल... और सहेली कुछ सीमित शब्दो मे जवाब दिये जा रही थी। मै सोच रही थी मेरी शेरनी को क्या हुआ??? मेरी जिन्दगी मे यह पहला अनुभव इस तरह का.... वैसे टी वी सीरीयल मे कभी कभार देखा है या किसी से सुना है पर आँखो देखा अजीब लग रहा था...।

भईया मेरी स्थिती को भाँप गये (सहेली के बड़े भाई), और मेरे लिये स्थिती सामान्य करने के लहजे से बोल पड़े, डॉ साहिबा जरा औरा रीडींग कर दिजिये... थोड़ा आपका मुड भी हल्का हो जायेगा, और हमे कुछ जानकारी भी मिल जायेगी.... हुह! तब से चुप बैठी थी... थैंक्स भईया बोल के एक एक की रीडींग शुरू.... लगभग सभी लोग संतुष्ट थे... तभी किसी ने पुछा.. क्यूँ बेटा तुम्हे शादी नही करनी? मैने सोचा अपना वही प्यारा सा जवाब दे दूँ "नही" ... पर मै बोली... करनी तो है.. परआँटी जी बोले कि मेरी नजर मे एक लड़का है कहो तो तुम्हारे मम्मी से बात करूँ?मैने कहा शौक से... पर मेरी कुछ शर्ते हैं, लड़का इन शर्तो पर खरा उतरता हो तो... और मेरे शर्तो कि श्रृँखला शुरू हुई---

1.लड़का बहुत लम्बा ना हो, ना ज्यादा छोटा हो... मतलब मेरे जैसा
2. मेरा हम उम्र हो
3. गुस्से वाला ना हो
4. उसे खाना बनाने आता हो
5. मेरा ऑफिस जान उसे नागवार ना हो
6. घर सम्भालने की जिम्मेदारी उसकी
7. मै कभी देर से घर वापस आऊँ तो कोई सवाल ना पुछे
8. मेरी प्राइवेसी मे ताका-झाँकी ना करे
9. मुझसे, कभी, क्यूँ इत्यादि सवाल ना करे
10. मै थकी रहूँ तो पैर भी दबाये
11. मतलब कि एक आदर्श गृहणी आजतक जो जो करती आयी है, लगभग सारे काम वो करेगा....
12. रोज रोज मेरे लिये बाजार से चॉकलेट लाये... हाँ मै चॉकलेट मे मामले मे इमानदार हूँ, वो मिल बाँट के खा लेंगे।
13. और इन सारे शर्तो मे मै अपने हिसाब से कभी भे घट बढ़ा सकती हूँ।
14. वो कभी कोई शर्त मेरे सामने ना रखे.............

अब ये सारे शर्त कोई लड़का पूरा कर सके तो जरूर बताना.... वरना जरूरत नही है। इतना कहना था कि सब ठहाके लगाकर हँस पड़े और एकमत स्वर मे बोले, ऐसा लड़का मिलना मुश्किल ही नही नामुमकिन है.....
तो बताईये है क्या कोई ऐसा......?

डॉ गरिमा तिवारी, कोटा, राजस्थान

अनछुए लम्हें

गर्मियों की छुट्टियों में जब भी लखनऊ जाते थे तो पापा एक बार हमें वज़ीरगंज जरुर ले जाते थे। अपना पुराना घर दिखाने। सडक के एक ऒर खडे होकर बताते देखो वो वाला घर हमारा था। "दादी यहां बैठी रहती थी। वो ऊपर जो कमरा दिख रहा है ना वो मेरा और आनन्द का था"। उनके चेहरे पर आते -जाते भाव आज स्पष्ट महसूस होते हैं। तब ना महसूस करने की क्षमता थी ना उम्र। शायद कभी उस नज़रिये से देखा भी नहीं था।
सालों बाद जब पापा ने ट्रांसफर के बाद झालावाड में ज्वाइन किया और उसी घर में रहने गये जो पहले कभी प्रिंसीपल का बंगला था और (अब हास्टल वार्डन और वाईस-प्रिंसीपल का) पापा अपने स्कूल टाइम में वहां रह चुके थे। यादें उनकी आंखों में साफ दिखायी दे रहीं थीं।ये कमरा दादी का था। देखो, दीवार पर तभी टाइल्स से उन्होंने त्रिशूल बनवाया था। ये बाबूजी की स्टडी थी ।जहां कोई बच्चा नहीं जा सकता था। यहां जिया की बेटी रमा हुई थी। ये घासी (चपरासी) का कमरा था। वो वाला हम बाकि भाई-बहिनों का। और भी ना जाने कितनी बातें जो उनकी स्मृतियों में ताज़ा हो चुकीं थीं। तब पहली बार घर के प्रति अपनत्व की भावना पैदा हुई थी।
आज जब नयी पीढी को अपने पुश्तैनी मकान से असम्पृक्त पाती हूं तो कहीं अफसोस की भावना बलवती हो जाती है। घर से जुडाव को महज वो एक ज़िद मान कर चलते हैं। ये सही है कि आज के समय में मात्र भावुकता से काम नहीं चलता पर उसे नकारा तो नहीं जा सकता ना। भौतिकतावादी सोच में शायद ऐसी किसी भी सोच के लिये कोई ज़गह या महत्व नहीं है। पर मैं खुद घर ,उसकी चारदीवारी,अपनेपन को अहमियत देती हूं। ना जाने कितनी यादें हैं जो कहीं ना कहीं घर से जुडी होतीं हैं। पुराने घर यानि पुश्तैनी मकान में अपने बुजुर्गों की खुशबू सी आती है। कई लोग मेरी सोच से सहमत नहीं होते पर ....................
क्यों चाहते हो न करुं
मैं इनसे बात
तुम्हारे लिये हैं ये प्रस्तर खंड मात्र
पर मेरे लिये-
शैशव मे था सुखद बिछौना
बालकाल में मूक सहचरी
यौवन की मीठी धडकन से भी हैं ये वाकिफ
हमारे प्यार की प्रथम अनुभूति से भी हैं, ये अभिभूत
फिर भी तुम कहते हो
ना करूं मैं इनसे संवाद
कई बार मैं इनसे लिपट कर रोई हूं
कई बार मैं इनके सान्निध्य में खिलखिलाई हूं
और-कई बार मैं इनसे शर्माईं हूं
तुम फिर भी कहते हो
ना करूं मैं इनसे वार्तालाप
इनमें है प्रौढ स्पन्दन
जो अहसास दिलाता है
मेरे पूर्वजों का मुझसे प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष
परोक्ष-अपरोक्ष रुप से जुडे होने का
उनके सान्निध्य ,अपनेपन व संरक्षण का
फिर भी तुम कहते हो
ना करूं मैं इनसे प्रेमालाप
यहां से उठती अर्थियों को देखकर
ये भी स्तब्ध होकर
थोडी ऒर पथराई होंगीं
यहां से सजती डोलियों को देख
ये भी ह्रदय में हूक लिये
डबडबाई-सिसकी तो होंगीं
यहां सुनकर बधावे के गीत
ये भी तो हर्षाई होंगी
यहां सुनकर किलकारियों की गूंज
ये भी मुस्कुराईं तो होंगीं
बोलो -चुप क्यों हो?
क्या अब भी चाहते हो,
कहते हो
मैं न करूं इनसे बात।

Friday, January 4, 2008

"आइये स्वागत करें ,ऐसे फैसलों का"

कुछ दिनों पहले हम रिश्तेदारी में एक जगह मिलने गये। सबसे मेल-मुलाकात हो गई उनके सुपुत्र जी नादारद थे।पता चला वीडियोगेम खेल रहें हैं । काफी बुलाने के बाद जनाब तशरीफ लाये। हाय,हैल्लो की औपचारिकता पूरी करी और फिर गायब व मशगूल अपने गेम में।
हम भी पहुंचे उत्सुकता पूर्वक देखने की आखिर ऐसा क्या है जो वो गेम से विछोह बर्दाशत नहीं कर पा रहें हैं। पीछे खडे होकर थोडा मुआयना किया तो पता चला कि कोई दो ग्रुप के मार-धाड पर आधारित खेल है। एक लडके को मिलकर तीन-चार लोग पीट रहें हैं। तभी पिटने वाले लडके के ग्रुप के सदस्य आ जाते है सब गुथम-गुथ्था। बस इससे ज्यादा हम उसे नहीं झेल पाये।
लौटते वक्त तक यहीं सोचते रहे कि रोज इसी प्रकार के खेल बच्चे की मानसिकता पर क्या असर करेंगें। बच्चों के कोमल मन पर पडने वाले प्रभाव को सोच कर हम सिहर उठे थे। सप्रयास हमने अपने को इस विचार से दूर रखने की कोशिश करी पर सफल नहीं हो पाये।
कल न्यूज़ की एक हेडलाइन ने ज़रा हमें आश्वस्त किया कि अब ज्यादा दिनों तक इस प्रकार के वीडियो गेम नहीं खेले जा सकेंगें क्योंकि अब वीडियो गेम्स पर भी सेंसरशिप लागू होगी। चलो देर आयद दुरस्त आयद, सेंसरशिप के बाद अत्यधिक खूनखराबे और सेक्स वाले कंप्यूटर गेम्स बच्चों को देखने को नहीं मिलेंगें। सूचना प्रसारण मंत्रालय के अनुसार लम्बे समय से अभिभावक ऐसे गेम्स की खिलाफत कर रहे थे।
मंत्रालय विधेयक के मसौदे पर विचार कर रहा है। विशेष वीडियो गेम के लिये बच्चों की आयु सीमा तय करी जायेगी।साथ ही यदि कोई वीडियोगेम भारतीय स्थितियों के अनुरूप नहीं है तो सेंसर बोर्ड को उसे खारिज़ करने का अधिकार भी होगा। जिस प्रकार डीवीडी कवर पर सेंसर बोर्ड का प्रमाण-पत्र दर्शाना होता है उसी प्रकार की अनिवार्यता वीडियोगेम्स के कवर पर भी होगी। सेंसर बोर्ड अध्यक्षा शर्मिला टैगोर के मुताबिक "प्रस्ताव लागू होने के बाद पालकों को खरीदे जाने वाले वीडियोगेम की पूरी पक्की जानकारी मिल सकेगी।गेम्स अनुचित सामग्री पाये जाने पर उन्हें हटा दिया जायेगा।"